Monday, 29 February 2016

सिंहस्थ (कुम्भ) महापर्व उज्जैन

सिंहस्थ (कुम्भ) के संबंध में

      सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं

       सिहंस्थ (कुम्भ) हमारी धार्मिक एवं आध्यात्मिक चेतना का महापर्व है। सनतन धर्मावलंबियों का यह संसार का सबसे बड़ा मेला कहा जा सकता है। पुराणों में कुम्भ पर्व मनाये जाने के सम्बन्ध में कर्इ कथाएँ हैं। सबसे प्रामाणिक कथा समुद्र मंथन की है। देव और दानवों ने आपसी सहायोग से रत्नाकर अर्थात् समुद्र के गर्भ में छिपी हुर्इ अमूल्य संपदा को दोहन करने का निश्चय किया। मंदराचल पर्वत को मथनी, कच्छप को आधार एवं वासुकी नाग को मथनी की रस्सी बनाया। उसके मुख की तरफ दानव व पूँछ की तरफ देवतागण उसे पकड़कर उत्साह के साथ समुद्र मंथन के कार्य में जुट गये। इन दोनों पक्षों की संगठनात्मक शक्ति के सामने समुद्र को झुकना पड़ा। उसमें से कुल 14 बहुमूल्य वस्तुएँ, जिन्हें रत्न कहा गया, निकलीं। अंत में अमृत कुंभ निकला। अमृत कलश को दानवों से बचाने के लिये देवताओं ने इसकी सुरक्षा का दायित्व बृहस्पति, चंद्रमा, सूर्य और शनि को सौंप दिया। अमृत कलश प्राप्त हो जाने से चारों और प्रसन्नता का वातावरण छा गया। देवता एवं दानव दोनों अपनी-अपनी थकावट भूल गए। देव एवं दानव दोनों पक्ष इस बात में उलझ गए कि अमृत कुम्भ (कलश) का कैसे हरण किया जावें। स्कन्दपुराण के अनुसार इन्द्र ने अपने युवा पुत्र जयन्त को कलश लेकर भागने का संकेत दिया। इस चाल को दानव समझ गए। परिणामस्वरूप देवता व दानवों में भयंकर संग्राम छिड़ गया। यह संग्राम 12 दिन तक चला। देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। अर्थात 12 वर्ष तक देव-दानवों का युद्ध चला। इस युद्ध में अमृत कुम्भ की छीना झपटी में मृत्युलोक में अमृत की कुछ बूंदे छलक पड़ी थीं। वे चार स्थान प्रधान तीर्थ हरिद्धार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन हैं।

    संग्राम में दानवों ने इन्द्र पुत्र जयन्त से अमृत कलश छुड़ाने का असम्भव प्रसास किया था, किन्तु देवताओं में सूर्य गुरू और चन्द्र के विशेष प्रयत्न से अमृत कलश सुरक्षित रहा और भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दानवों को भ्रमित करके सारा अमृत देवताओं में वितरित कर दिया था। सूर्य, चन्द्र एवं गुरू के विशेष सहयोग से अमृत कलश सुरक्षित हरने के कारण इन्हीं ग्रहों की विशिष्ट स्थितियों में कुम्भ पर्व मनाने की परम्परा है। यह धार्मिक मान्यता है कि अमृत कलश से छलकी बूंदों में ये चारों तीर्थ और यहां की नदियां (गंगा, जमुना, गोदावरी, एवं क्षिप्रा) अमृतमय हो गर्इ हैं। अमृत कलश से हरिद्धार, प्रयाग, नासिक, और उज्जैन में, अमृत बिन्दु छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चंद्र एवं गुरू की स्थिति उस विशिष्ट योग के अवसर पर रहती है, तभी वहां कुम्भ पर्व इन राशियों में ग्रहों के योग होने पर ही होते हैं।
       देश भर में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। हरिद्वार,प्रयाग, उज्जैन और नासिक में लगने वाले कुम्भ मेलों के उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरू के आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है।